#मैहर की शारदा माता की कहानी |#maihar Ki Sharda Mata Ki Katha #maiharkidevikikatha


 

मैहर की शारदा माता की कहानीमां शारदा भवानी की कथा

 

शक्ति की साधना, आराधना और सृजन का पर्व आज से शुरू हो गया है। 

 

आस्था के इस संगम में देश-विदेश से लाखों की संख्या में भक्तडुबकीलगा रहे है। 

 

मैहर स्थित मां शारदा धाम में नवरात्र की पूर्व संध्या से ही भक्तों के पहुंचने का 

 

सिलसिला शुरू हो जाता है

 

मैहर में शारदा माँ का प्रसिद्ध मन्दिर है जो नैसर्गिक रूप से समृद्ध कैमूर तथा विंध्य की पर्वत श्रेणियों की गोद में अठखेलियां करती तमसा के तट पर त्रिकूट पर्वत की पर्वत मालाओं के मध्य 600 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह ऐतिहासिक मंदिर 108 शक्ति पीठों में से एक है। यह पीठ सतयुग के प्रमुख अवतार नृसिंह भगवान के नाम पर 'नरसिंह पीठ' के नाम से भी विख्यात है।

सबसे पहले आल्हा-उदल करते हैं माई की पूजा

मैहर मंदिर को लेकर कई लोककथाएं प्रचलित हैं। इसमें एक है मां शारदा के अनन्य भक्त आल्हा और उदल की। कहा जाता है कि आल्हा-उदल को मां ने अमरत्व का वरदान दिया था। मैहर मंदिर में हर रात को आल्हा और उदल नाम के दो चिरंजीवी दर्शन करने आते हैं अर्थात माई की सबसे पहले पूजा आल्हा और उदल ही करते हैं। अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करता हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। मंदिर के पुजारी बताते हैं, महोबा निवासी दो वीर योद्धा भाई आल्हा और उदल 800 वर्ष पूर्व हुआ करते थे। उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था और मोहम्मद गौरी को भी चुनौती दी थी। दक्षराज और देवल देवी के बड़े पुत्र आल्हा को पौराणिक परंपराओं में युधिष्ठिर का अवतार माना गया है, जिनका जन्म सामंती काल में हुआ था। सबसे पहले जंगलों के बीच मां शारदा देवी के मंदिर की खोज आल्हा ने की थी। आल्हा ने इस मंदिर में 12 वर्षों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आल्हखण्ड के नायक आल्हा ऊदल दोनों भाई मां शारदा के अनन्य उपासक थे। पर्वत की तलहटी में आल्हा का तालाब अखाड़ा आज भी विद्यमान है।

 

प्राचीन पौराणिक कहानी

इस मंदिर की उत्पत्ति के पीछे एक बहुत ही प्राचीन पौराणिक कहानी है जिसके अनुसार सम्राट दक्ष की पुत्री सती, भगवान शिव से ब्याह करना चाहती थी, परंतु राजा दक्ष शिव को भगवान नहीं, भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे और इस विवाह के विरोधी थे, फिर भी सती ने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ भगवान शिव से ब्याह रचा लिया। कहानी के अनुसार एक बार राजा दक्ष ने 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया, इस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन जान-बूझकर उन्होंने भगवान महादेव को नहीं बुलाया। महादेव की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत दुखी हुईं और यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता से भगवान शिव को आमंत्रित करने का कारण पूछा, इस पर दक्ष ने भगवान शिव के बारे में अपशब्द कहा, तब इस अपमान से पीड़ित होकर सती मौन होकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ गयी और भगवान शिव के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया, जब शिवजी को इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और यज्ञ का नाश हो गया। तब भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे।


मैहर का मतलब है, मां का हार

ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के अंग को बावन हिस्सों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्ति पीठों का निर्माण हुआ। उन्हीं में से एक शक्ति पीठ है मैहर देवी का मंदिर, जहां मां सती का हार गिरा था। मैहर का मतलब है, मां का हार, इसीलिये इस स्थल का नाम मैहर पड़ा। अगले जन्म में सती ने हिमाचल राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति के रूप में प्राप्त किया।

एतिहासिक कहानी

चैत्र नवरात्र में जहां मैहर वाली मां शारदा का मंदिर परिसर भक्तों के जयकारों से गूंजायमान हो रही है। वहीं पहाड़ा वाली माई की कई दंत्रकथाएं में भी सामने रही है। कहते हैं मां हमेशा ऊंचे स्थानों पर विराजमान होती हैं। सतना जिले के मैहर नगर से 5 किमी. दूर पर 600 फीट ऊंचाई पर स्थित त्रिकूट पर्वत को मैहर देवी का मंदिर कहा जाता है।

मंदिर के महंत बतातें हैं कि 200 वर्ष पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जूदेव राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य का एक ग्वाला गा


चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था।

उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय

तरह-तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहां से गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो देखता है कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी।

बैठ गया गुफा के द्वार पर

तब उसके पीछे-पीछे जाउगा। गाय का पीछा करते हुए ग्वाला ने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। ग्वाला बेचारा गाय के इंतजार में गुफा के द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर के बाद गुफा का द्वार खुला। लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए।

गाय चराने के बदले मिले हीरा-मोती

तब ग्वाले ने उस बूढ़ी माता से कहा, 'माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं। बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए और कहा, 'अब तू इस भयानक जंगल में अकेले आया कर। वह बोला, 'माता मेरा तो जंगल-जंगल गाय चराना ही काम है।

ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर

लेकिन मां आप इस भयानक जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता। तो बूढ़ी माता ने उस ग्वाले से हंसकर कहा-बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं। मैं यही निवास करती हूं। इतना कह कर वह गायब हो गई। ग्वाले ने घर वापस आकर जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो वह हैरान हो गया। जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे।

महाराजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई

उसने सोचा मैं इसका क्या करूंगा। सुबह होते ही महाराजा के दरबार में पेश करूंगा और उन्हें आप बीती कहानी सुनाऊंगा। दूसरे दिन भरे दरबार में वह ग्वाला अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और महाराजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई। उस ग्वाले की कहानी सुन राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान कर, अपने महल में सोने चले गए।

मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा

रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति मां शारदा है। स्वप्न में माता ने राजा को वहां मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा दी और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी की मनोकामनाएं पूरी होंगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कार्य पूरे करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैल गई।

धीरे-धीरे फैलने लगी महिमा

माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां पर आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना पूरी होती गई। इसके पश्चात माता के भक्तों ने मां शारदा को सुंदर भव्य तथा विशाल मंदिर बनवा दिया। आज इस मंदिर की जिम्मेदारी शारदा प्रबंध समिति को दी गई है। वतर्मान समय में पहाड़ा वाली माता के दर पर पहुंचने के लिए जिला प्रशासन ने रोप-वे की व्यवस्था की है।

 

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