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चल रही है शनि की साढ़ेसाती तो पढ़ लीजिए यह व्रत कथा, बचे रहेंगे दुष्प्रभाव से

 


 

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Shanivar Vrat Katha: शनिवार की व्रत कथा, इसके पाठ से शनि साढ़ेसाती और शनि दोष से मिलेगी मुक्ति 

Shani vrat katha _ चल रही है शनि की साढ़ेसाती तो पढ़ लीजिए यह व्रत कथा, बचे रहेंगे दुष्प्रभाव से

 

कहते हैं कि शनि देव प्रसन्न होते हैं वो रंक से राजा हो जाता है और जिस पर शनि देव का क्रोध बरसता है उन्हें अपने जीवन में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

 

दोस्तो, आज हम शनि देव से जुडी  कुछ बातें जानेंगे

Shani Dev Katha: शनि क्यों कहलाए न्याय के देवता? क्या है इसके पीछे का राज?

 Shani Dev Katha: शनिवार के दिन शनि चालीसा का पाठ सुबह शाम करने से इंसान के सारे कष्टों का अंत हो जाता है।

Shani Dev Katha: शनिदेव को न्याय का देवता कहा जाता है, कहते हैं कि वो अगर किसी पर नाराज हो गए तो निश्चित तौर पर उस व्यक्ति के साथ कुछ भी अच्छा नहीं होता है। इसलिए हर कोई शनिदेव के प्रकोप से बचने की कोशिश करता है। कुछ लोग उन्हें क्रूर देवता भी कह देते हैं।

शनि क्यों कहलाए न्याय के देवता?

लेकिन वास्तव में अगर देखा जाए तो शनिदेव बिल्कुल भी ऐसे नहीं हैं लेकिन वो अनुशासन को सही मानते हैं। उनके दर पर जो भी उनकी पूजा स्वच्छ और निर्मल भाव से करता है तो शनिदेव उसकी पुकार जरूर सुनते हैं और उन पर अपनी कृपा बरसाते हैं।

वैसे क्या कभी आपने सोचा है कि आखिर शनिदेव को न्यायप्रिय या न्याय का देवता कहते क्यों हैं?

 शनिदेव को भगवान शिव ने दिया वरदान तो इसके पीछे एक रोचक कहानी है, दरअसल एक बार शनिदेव और भगवान शिव में युद्ध छिड़ गया। शनिदेव ने भोलेशंकर के साथ कई घंटों तक युद्ध किया लेकिन अंत में शिव ने उनको हरा ही दिया। ऐसे में शनिदेव के पिता सूर्यदेव वहां प्रकट हो गए और उन्होंने अपने बेटे की ओर से की गई गलती के लिए शिव से माफी मांगी, जिस पर शंकर जी ने शनिदेव को माफ कर दिया लेकिन वो शनिदेव की शक्ति और हिम्मत से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए और उन्होंने उससे कहा कि 'तुम सत्य का पालन करने वाले हिम्मती हो इसलिए मैं तुम्हें आज से दण्डाधिकारी नियुक्त करता हूं और तब से ही शनिदेव लोगों को दंड देने लग गए और वो न्यायप्रिय कहलाने लगे।'

शनिदेव को क्यों चढ़ता है तेल?

अक्सर आपने शनिदेव की मूर्ति पर लोगों को सरसों का तेल चढ़ाते देखा होगा, दरअसल ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से शनिदेव प्रसन्न होते है और साढ़ेसाती के दंश से मुक्त कर देते हैं। शनिदेव के सामने सरसों का तेल का दीपक जलाने से इंसान के घर में कलह नहीं होता है और सुख- शांति बनी रहती है।

शनिदेव को खुश करें इन मंत्रों से

ऊँ शं शनैश्चाराय नमः। ऊँ शन्नो देवीरभिष्टडआपो भवन्तुपीतये शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।शंयोरभिश्रवन्तु नः। ऊँ शं शनैश्चराय नमः। ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्


Shani Dev Katha:
शनि देव कैसे बने कर्मफल दाता? पढ़ें यह पौराणिक कथा

कहते हैं कि शनि देव प्रसन्न होते हैं वो रंक से राजा हो जाता है और जिस पर शनि देव का क्रोध बरसता है उन्हें अपने जीवन में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

Shani Dev Katha: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शनि (Shani Dev) देव न्याय के देवता और कर्मफल दाता (Karmaphal Daata) हैं. जो जैसा कर्म करता है, उसे वे वैसा ही फल देते हैं. वे सबके साथ न्याय करते हैं, इसलिए न्याय के देवता हैं. लेकिन जब ये राहु के साथ युति करते हैं, तो दंडनायक की भूमिका में होते हैंदुष्ट लोगों को उनके कर्मों के लिए दंड भी देते हैं. तभी तो राहु के प्रभाव में आकर उन्होंने अपने वाहन काकोल की मां को भस्म करने के लिए इंद्र देव को दंडित किया था. शनि देव प्रारंभ से ही ऐसे नहीं थे. अपने पिता सूर्य देव से बार बार अपमानित होने के कारण शनि देव कठोर हो गएआखिर शनि देव कर्मफल दाता कैसे बनें? आइए जानते हैं इसके बारे में.

 

शिव कृपा से शनि देव बने श्रेष्ठ

पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य देव जब अपनी पत्नी छाया के पास गए तो उनकी तेज से पत्नी ने आंखें बंद कर ली. कुछ समय बाद शनि देव का जन्म हुआ. माता छाया के आंखें बंद कर लेने के कारण वे श्यामवर्ण के हो गए. सूर्य देव उनके रंग को देखकर दुखी हो गए. उन्होंने अपनी पत्नी छाया से कहा कि शनि उनका पुत्र नहीं हो सकता है. इससे उनकी पत्नी बहुत दुखी हुईं और शनि देव यह देखकर क्रोधित हो गए.

माता छाया के प्रति पिता सूर्य देव के व्यवहार से शनि देव काफी दुखी और क्रोधित रहतेथे. उन्होंने शिव उपासना का प्रण लिया. उन्होंने हजारों वर्षों तक भगवान शिव की तपस्या की, जिससे उनका शरीर काला पड़ गया. शनि देव की कठोर तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा.


तब शनि देव ने कहा कि उनके पिता सूर्य देव ने हमेशा उनकी माता छाया का अपमान किया है. वह चाहते हैं कि सूर्य देव का अभिमान टूट जाएतब भगवान शिव ने कहा कि तुम सभी ग्रहों में श्रेष्ठ होगे. आज से तुम सभी लोगों को उनके कर्मों के आधार पर फल दोगे. तुम सबके साथ न्याय करोगे और न्याय के देवता होगे. भगवान शिव की कृपा से ही शनि देव कर्मफल दाता बनें और सभी ग्रहों में श्रेष्ठ हुए

 Shaniwar Vrat Katha in Hindi: शनिदेव को कर्मफल दाता कहा गया है। शनि कर्मों के हिसाब से व्यक्ति को दंड़ देते हैं। कहते हैं शनिवार के व्रत रखने से शनि दोष में कमी आती है। साथ ही शनिदेव का आशीर्वाद भी मिलता है। शनि दोष और शनि की साढ़ेसाती से बचने के लिए इस कथा का पाठ जरुर करें। यहां विस्तार से पढ़ें शनिवार की व्रत कथा।


आज्ञा दी गुरुदेव ने, दीना शीश झुकाय।
कथा कहु शनिदेव की, भाषा सरल बनाया।।

सर्वप्रथम श्री सरस्वती को सुमिरन करके, गणपति जी को नमस्कार करके तथा अपने गुरुदेव 2 के चरणों में माथा नवाकर मैं श्री शनिदेव जी की कथा प्रारम्भ करता हूं। यह शनि शनिदेव जो मनवांछित कार्यों को सफल बनाने वाले हैं तथा जिन्हें सकल नर-नारी और तैंतीस कोटि देवता, योगीश्वर, मुनीश्वर ध्याते हैं वही देव मेरी त्रुटियों को क्षमा करें और मुझे अपनी शरण में लें। मेरे मन में आपके प्रति अगाध प्रेम है। यह बात सर्वविदित है कि जो लोग शनिदेव को ध्याते हैं उनके सकल मनोरथ सफल होते हैं तथा जो ऐसे देव को भूल जाता है वह इस संसार में महान दुख पाता 12 हुआ नरकगामी होता है और अगले जन्म में पशु की योनि में जाता है। जो कथा मैं तन-मन से कहने जा रहा हूं उसे आप भी सच्चे मन से ग्रहण करें। एक बार संसार में चहुँ ओर पूजे जाने वाले नवग्रह एक स्थान पर एकत्र हुए। परस्पर विविध 4 प्रकार से वार्तालाप करने लगे। जब बात घूमती हुई उस स्थान पर पहुंची कि हम नवग्रहों में सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूजनीय कौन देव है तो प्रत्येक ग्रह देवता स्वयं को बड़ा कहने लगे। इस बात पर जब बहुत देर तक वाद-विवाद होता रहा और कोई निर्णय नहीं हो सका तो यह तय हुआ कि चलकर इन्द्र से इसका निर्णय कराना चाहिये। अतः वह नौ के नौ ग्रह इन्द्रदेव के समक्ष उपस्थित हुए।

  


उन सबकी बातें सुनकर इन्द्रदेव भी सोच में पड़ गये। किसे छोटा कहूं और किसे बड़ा? किमकी श्रद्धा के पात्र बनें और किसके कोप के भाजन। अन्त में सोच समझकर निर्णय करते हुए वह बोले मैं अल्प बुद्धि इस बात का निर्णय करने में असमर्थ हूं। मुझे तो आप सभी बड़े नजर आते हैं और मैं सभी का आदर-सम्मान समभाव से करता हूं। इस पर नवग्रह संतुष्ट नहीं हुए और हठ करने लगे कि इसका निर्णय आपको अवश्य करना चाहिये। तब देवराज बोले आप लोग मृत्यु लोक में जाइये। वहां एक अत्यंत न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य राज्य करता है। आप उनके पास जाइये वह अवश्य आपका कोई--कोई उचित निर्णय कर देगा।

इन्द्र से निराश होकर नवग्रह मृत्यु लोक में जाने को तत्पर गये। देवराज इन्द्र ने जब उन्हें वहां जाते देखा तो प्रसन्न होकर चैन की साँस ली। इस धर्म संकट से निकलना उनके लिए सचमुच ही कितना दुश्वार था, पर अपनी चतुराई से अपने ऊपर आये संकट को राजा विक्रमादित्य पर टाल दिया। उज्जैन नगरी की उन दिनों सारे ही भारत में धाक थी। एक तो वहां राजा विक्रमादित्य के दरबार में बड़े-बड़े ज्ञानवान लोगों का सम्मेलन होता रहता था दूसरे उस न्याय-प्रिय राजा के न्याय से उज्जैन नगरी का सारे भारत में डंका बजता था। स्वर्ग में जब नवग्रहों का निर्णय हो पाया तो वह अपने-अपने विमानों पर आरूढ़ हो मृत्युलोक में पहुंचे।


ठीक उस समय जब राजा विक्रमादित्य का दरबार ठसाठस भरा हुआ था, तब नवग्रह वहां जा पहुंचे। नवग्रहों को इकट्ठे देखकर विक्रमादित्य अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और सभी देवों को सम्मान पूर्वक आसन ग्रहण करने को कहा। किन्तु राजा के इस सम्मान को किसी भी ग्रह देवता ने स्वीकार नहीं किया तब विक्रमादित्य ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देखा तो बृहस्पति देव ने आगे बढ़कर दृढ़-स्वर में कहा-हे राजन् ! हम यहां पर तब तक आसन ग्रहण नहीं करेंगे जब तक कि आप हमारा यह निर्णय नहीं करेंगे कि हम लोगों में सबसे बड़ा कौन है?


राजा अपने ऊपर आये इस धर्म संकट को देखकर पलभर को तो घबरा गया परन्तु शीघ्र ही उसने स्वयं को सम्भाल लिया। उसने अपने मन में एक युक्ति सोच ली। दरबार में छोटे-छोटे आसनों की एक पंक्ति प्रवेशद्वार तक चली गई थी। राजा ने उन लोगों से कहा कि आप यहां पर आसन ग्रहण कीजिए और मैं सोचकर अभी अपना निर्णय करता हूं। यह कहकर राजा अपने सिंहासन पर बैठ गया। सिंहासन के निकट ही जो आसन पड़ा था उस पर भागकर बृहस्पतिदेव जा बैठे। उनके अगले आसन पर सूर्य देव जा बैठे। सूर्य के निकट ही चन्द्रमा और फिर इसी क्रम में बुध, मंगल, राहु, केतु इत्यादि ने भी अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिया। पंक्ति में आठवें थे भार्गव किन्तु उन्हें भी संतोष था कि उनके बाद शनिश्चर बैठेंगे। किंतु आसन प्रवेशद्वार के समीप होने के कारण और सबसे अंत में होने के कारण शनिदेव उस पर नहीं बैठे।


राजा विक्रमादित्य ने सोचा था कि जो ग्रह उस अन्तिम आसन पर बैठेगा वह उसी को विनय और दयाशील के आधार पर बड़ा कह देंगे। पर वहां तो बात ही दूसरी हो गई। शनिदेव अति क्रोधी और विकट स्वभाव के देवता हैं। जब वह नहीं बैठे तो आठों ग्रह खिलखिलाकर हंस पड़े। अपना इस प्रकार से अपमान होते देखकर शनिदेव की आंखें क्रोध से लाल हो गईं और भृकुटी तन गई। क्रोध से काँपते हुए बोले राजन! मुझसे वैर लेकर तुमने अच्छा नहीं किया। क्या समझ कर तुमने मुझे इस प्रकार से अपमानित करना चाहा है और क्यों मुझे तले बिठाना चाहा है। चांद ग्रह का प्रभाव सवा दो दिन रहता है और सूर्य, शुक्र और बुध का प्रभाव केवल आधा मास। सोम और मंगल दो मास और गुरु तेरह मास। राहु और केतु अठारह मास रहते हैं, जबकि मैं साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। इसलिए हे राजन अब तू सावधान हो जा। तूने जो अपमान किया है इसका दण्ड तुझे अवश्य मिलेगा। राजा के कुछ दिन तो आराम से बीते लेकिन शीघ्र ही शनिदेव की कोप दृष्टि फिरी और राजा पर साढ़ेसाती गई। उन्हीं दिनों एक व्यापारी कुछ घोड़े बेचने के लिए उज्जैन नगरी में आया। सुन्दर-सुन्दर घोड़े


देखकर राजा का जी ललचा गया। राजा ने उन्हें खरीदने का आदेश दिया। घोड़ों में एक घोड़ा भंवर नाम का था। राजा उस पर चढ़कर देखने लगे। कुछ देर तक तो घोड़ा राजा को लिये वहीं घूमता रहा लेकिन फिर सहसा भाग खड़ा हुआ। राजा को बड़ा अचंभा हुआ। घोड़ा एक भयानक जंगल में राजा को पटककर अंतर्ध्यान हो गया। राजा अकेला उस वीरान जंगल में भटकने लगा। सायं के समय जब उसे प्यास बहुत सताने लगी तो वह जोर-जोर से चीखने लगा। उधर एक पगडंडी से एक ग्वाला अपने गांव को जा रहा था। वह राजा की आवाज सुनकर रुक गया। राजा उसके पास गया। ग्वाले ने उसकी व्यथा जानकर उसे निकट की नदी पर ले जाकर पानी पिलाया। पानी पीने के बाद राजा स्वस्थ हो गया और प्रसन्न होकर उसने ग्वाले को अपने हाथ की अंगूठी उतारकर दे दी और उससे कहा कि मैं उज्जैन का रहने वाला हूं। यहां रास्ता भटक गया हूं। तुम मुझे रास्ता दिखाओ। तब ग्वाला उसे अपने साथ गांव में लाया। वहां एक मिष्ठान की दुकान पर राजा ने मिठाई खा-पीकर भूख मिटाई और दुकानदार को भी एक अंगूठी उतार कर दे दी। दुकानदार के पूछने पर उसने उससे भी यही कहा कि वह उज्जैन नगरी का रहने वाला है और उसका नाम बोना है। फिर वह दुकान के बन्द होने तक वहीं बैठा दुकानदार से बातें करता रहा। उस दिन दुकानदार की बिक्री बहुत हो गई।


उसने सोचा यह भाग्यवान पुरुष है जो इसके आने से आज मेरी इतनी बिक्री हुई है। इसलिये रात होने पर वह उससे बोला कि वह उसके साथ उसके घर चले और उसके साथ ही भोजन भी करे। राजा मान गया। जब वह दोनों घर पर पहुंचे तो दुकानदार की पत्नी ने उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया और अतिथि के लिए विशेष रूप से भोजन तैयार किया। भोजन करते समय एक अद्भुत घटना घटी। जहां राजा भोजन कर रहा था वहीं सामने की दीवार पर सोने का एक सतलड़ा हार टंगा हुआ था। सहसा ही वह हार वहां से अदृश्य हो गया। दुकानदार के यहां एक बांदी थी। उसने जाकर घर की मालकिन से कहा-वहां खूटी पर हार नहीं है।

सेठ के घर में खूंटी पर एक हार टंगा था, जिसको खूंटी निगल रही थी। कुछ ही देर में हार पूरी तरह से गायब हो गई। सेठ वापस आया तो हार गायब था। उसे लगा की वीका ने ही उसे चुराया है। सेठ ने वीका को कोतवाल से पकड़वा दिया और दंड स्वरूप राजा उसे चोर समझ कर हाथ-पैर कटवा दिया। अंपग अवस्था में उसे नगर के बाहर फेंक दिया गया। तभी वहां से एक तेली निकल रहा था, जिसको वीका पर दया गई। उसने वीका को अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वीका अपनी जीभ से बैलों को हांकने लगा।


जब बात दुकानदार तक पहुंची तो उसने राजा से पूछा। राजा बोला-मुझे तो नहीं मालूम। तुम्हारे और मेरे अतिरिक्त तो यहां कोई था ही नहीं। सच-सच बताओ हार कहां है? मुझे नहीं मालूम। राजा फिर बोला-मेरे पास कोई हार नहीं है। जब कोई निर्णय नहीं हो सका तो दुकानदार राजा को उस नगर के राजा के पास ले गया। उस नगर के राजा ने जब विक्रमादित्य की भोली-भाली सूरत देखी तो बोला-यह व्यक्ति कभी भी चोरी नहीं कर सकता और यह कहकर उसने विक्रमादित्य को छोड़ दिया। विक्रमादित्य जब उसे नगर में यूं ही इधर-उधर घूम रहा था तब उस नगर के एक तेली ने उससे कहा कि वह उसके यहां काम कर ले तो उसे वह रहने को स्थान और खाने को सामग्री भी देगा। राजा मान गया और तेली उसे अपने घर ले आया। वहां सारा दिन राजा धाणी पर बैठा उसके बैलों को हांकता रहता और तेली बाजार में तेल बेच आता।


जब वर्षा ऋतु आई और मूसलाधार वर्षा होने लगी तब धाणी पर बैठे हुए विक्रमादित्य ने मौज में आकर ऊंचे-ऊंचे स्वर में राग अलापना आरम्भ कर दिया। निकट ही उस नगर के राजा का राजमहल था। वहां खिड़की में बैठी राजकुमारी ने जब राजा का मधुर स्वर में गीत सुना तो वह अपना दिल हार बैठी। उसने बांदी को पता करने के लिए भेजा। बांदी वहां राजा को गाते हुए देखकर लौटी तो राजकुमारी से बोली कि वहां पर तो कोई अति सुकुमार नवयुवक बैठा मस्ती में आँखें बन्द किये गा रहा है। राजकुमारी ने सुना तो उसने अन्न जल का त्याग कर दिया। रात तक जब उसने कुछ नहीं खाया तो रानी ने आकर उसे समझाया। पर वह बोली कि वह तो उस गाने वाले से ही शादी करेगी। रानी ने जाकर राजा से कहा कि राजकुमारी एक तेली पर मोहित हो गई है और उससे ब्याह रचाना चाहती है। राजा ने सुना तो बहुत युद्ध हुआ। उसने तेली के घर से विक्रमादित्य को बुलाया और उसके हाथ काटकर जंगल में फिकवा दिये। यह बात जब राजकुमारी को पता चली तो वह और भी अपनी बात पर दृढ़ हो गई। बोली मैंने तो अब उसी को वर लिया है वह चाहे कैसा भी हो उसी से विवाह करूंगी। बेटी की हठ देखकर लाचार हो राजा ने दोबारा विक्रमादित्य को नगर में बुलवाया और उससे राजकुमारी का मामूली ढंग से पाणिग्रहण कराया और एक साधारण मकान में दोनों को बसा दिया। दोनों वहीं रहने लगे।


एक दिन जब विक्रमादित्य सोया था तो स्वप्न में उसे शनिदेव नजर आये। विक्रमादित्य ने उनके सामने नमस्कार किया और क्षमा याचना की। शनिदेव ने उसे आशीर्वाद दिया और बोले-अब तुम्हारी साढ़ेसाती ( साढ़े सात वर्ष) खत्म हो गई है। राजा बोला-मुझसे जो गलती हुई उसके लिये मुझे क्षमा कर दीजिए। शनिदेव ने मुस्करा कर उसे आशीर्वाद दिया और राजा के दोनों बाजू दोबारा निकल आए।


राजा ने अपनी पत्नी राजकुमारी को रात को जगाया नहीं। वह रात को उसके गले में अपनी बाहें डालकर सो गया। सुबह राजकुमारी की आँख खुली तो उसने अपनी गर्दन में बाहें पड़ी देखीं तो वह चौंककर उठ बैठी। लेकिन शीघ्र ही विक्रमादित्य ने जागकर उसको सब बातों से अवगत करा दिया। जब वहां के राजा को यह बात मालूम हुई तो वह भागा-भागा आया और उस अपंग को फिर से स्वस्थ देखकर चकित रह गया। उसको भी विक्रमादित्य ने यही कहा कि यह सब शनिदेव की कृपा का फल है और विक्रमादित्य ने अपना वास्तविक परिचय भी उस राजा को दिया और सारा किस्सा विस्तार से सुनाया। सुनते ही राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिर गया और क्षमा याचना करने लगा। बस यह खबर शीघ्र ही सारे नगर में फैल गई। दुकानदार को जब यह खबर मिली तो वह भागा-भागा आया और विक्रमादित्य के पांवों पर लोटने लगा। विक्रमादित्य ने उसे उठाकर आसन पर बिठाया और कहा-तुम घर जाकर उसी खूंटी पर देखो हार टंगा होगा और सच ही दुकानदार ने देखा हार टंगा पाया।


राजा ने नौकरानियों के साथ लश्कर समेत विक्रमादित्य को विदा किया। राजा विक्रमादित्य जब राजकुमारी को लेकर अपनी नगरी उज्जैन में लश्कर समेत पहुँचा तो सारी नगरी में उत्साह छा गया। अपने राजमहल में प्रवेश करने से पूर्व विक्रमादित्य ने नवग्रहों की पूजा की और शनिदेव को सर्वोच्च स्थान दिया। साथ ही उसने नगर भर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि शनिदेव मनोवांछित फलों को देने वाले हैं और नवग्रहों में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। इस प्रकार शनिदेव को मनाकर विक्रमादित्य ने अपने राज्य, यश और कीर्ति को प्राप्त कर लिया। बोलो श्री शनिदेव की जय। बोलो श्री नवग्रहों की जय।।

दोहा -
जैसी सुनी तैसी कही, इसमें झूठ सांच।
विक्रम भूप इतिहास को, सज्जनों देखो बांच।।
सुने सुनावे शनि कथा, गावे जो चित्तलाय।
सत्य वचन है संत का, वाको संकट जाय।।


शनिदेव की हैं 8 पत्नियां, एक ने दिया था श्राप, इसलिए हमेशा झुकी रहती हैं न्याय की देवता की नजर

Shanidev Wives Name:  शनि देव को धर्मराज कहा जाता है. लोगों को उनके कर्मों के अनुसार शनि देव का शुभ-अशुभ फल मिलता है..यही कारण है कि हर व्यक्ति चाहता है कि उसकी कुंडली में शनि की स्थिति ठीक रहे और उसे शनि दोष से पीड़ित होना पड़े. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक बार शनि देव को भी श्राप का भागी बनना पड़ा था.

 

Shanidev Wives Name: सूर्य देव के पुत्र भगवान शनि देव को न्याय और कर्मों का देवता माना जाता हैशनि ग्रह अशांत हो जाएं तो जीवन में कष्टों का आगमन शुरू हो जाता है क्योंकि इनको काफी गुस्सैल ग्रह बताया गया है. शनि  किसी के भी जीवन में उथल-पुथल मचा सकते हैं. नवग्रहों में शनिदेव केवल उन्हीं लोगों को परेशान करते हैं, जिनके कर्म अच्छे नहीं होते. जिन लोगों पर भगवान शनिदेव मेहरबान होते हैं उसे धन धान्य से परिपूर्ण कर देते हैं. ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक शनि देव एक ही राशि में 30 दिनों तक रहते हैं. हम शनि की पूजा करते हैं. शनि देव के बारे में तो बहुत सी बातें कही और सुनी जाती हैं, लेकिन शनि देव की पत्नी के बारे में बहुत कुछ नहीं कहा जाता हैक्या आपको पता है कि शनि देव की पत्नी कौन थीं और किस तरह से उनका विवाह हुआ था? आइए धर्म शास्त्रों के मुताबिक हम जानने की कोशि करते हैं कि शनिदेव का विवाह कब और कैसे हुआ था?

धार्मिक मान्यता के अनुसार शनिवार का दिन उनको प्रसन्न करने के लिए विशेष महत्व रखता है. ऐसी भी मान्यता है कि अगर शनिवार के दिन शनिदेव के साथ ही उनकी 8 पत्नियों के नाम का जाप कर लें तो जीवन के बड़े से बड़े संकट भी टल जाते हैं. धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि जो भी व्यक्ति शनिदेव की पत्नियों का नाम जाप करता है उस पर भी शनिदेव अपनी कृपा बरसाते हैं.

शनि देव को उनकी पत्नी ने ही श्राप दिया गया था.आज तक इस श्राप ने शनि देव का पीछा नहीं छोड़ा, जिसके कारण वे सिर झुकाकर चलते हैं. जानते हैं शनि देव की पत्नी और इस पौराणिक कथा के बारे में. कथा के बारे में पढ़ने से पहले जानें कि शनिदेव की कितनी पत्नियां हैं

कौन हैं शनि देव की 8 पत्नियां?-(धार्मिंक मान्यताओं के अनुसार शनिदेव की कुल 8 पत्नियां हैं.)
ध्वजिनी
धामिनी
कंकाली
कलहप्रिया
कंटकी
तुरंगी
महिषी और अजा
(
कुछ जगहों पर नीलिमा को शनि की दूसरी पत्नी माना जाता है. नीलिमा शनि की शक्ति थीं और उनके पास ब्रह्म के पांचवे सिर की ताकत थी. धामिनी एक गंधर्व थीं.) आइए अब जानते हैं कथा...

शनि की कथा
वेद पुराणों में भी शनि देव की कथा का जिक्र मिलता है. ब्रह्मपुराण के अनुसार, शनि देव श्री कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे. वह अपना ज्यादातर समय श्रीकृष्ण की उपासना में ही बिताते थे. एक बार की बात है जब शनि देव की पत्नी को संतान पाने की इच्छा हुई. वह शनि देव के पास पहुंची. लेकिन शनि देव कृष्ण भक्ति में रमे हुए थे. पत्नी के कोशिशों के बाद भी शनि देव का ध्यान भंग नहीं हुआ. कोशिशों के बाद भी ध्यान भंग हुआ तो शनि देव की पत्नी को गुस्सा गया और उन्होंने क्रोध में ही शनि देव को श्राप दे दिया.

पत्नी ने कहा श्राप देते हुए कहा कि आज के बाद जिस व्यक्ति पर शनि देव की दृष्टि पड़ेगी वह तबाह हो जाएगा. जब शनि देव ध्यान से जागे तो उन्हें अपनी भूल का आभास हुआ पत्नी से क्षमा भी मांगी. लेकिन शनि देव की पत्नी के पास श्राप को निष्फल करने की कोई शक्ति नहीं थी. इसी घटना के बाद से शनि देव अपना सिर नीचे करके चलने लगे, जिससे उनकी दृष्टि से किसी का बिना बात के विनाश हो.

शनिवार को इन बातों का रखें ध्यान
भगवान शनि के कोप से बचने के लिए सूर्योदय से पहले उठकर व्रत रखने का संकल्प लें. शनिवार के दिन उनकी प्रतिमा पर काले तिल और तेल को चढ़ाएं. शनिवार को लोहा या लोहे से बनी चीजों को खरीदने से बचें. इस दिन सरसों का तेल भी नहीं खरीदा जाता है. गरीबों और बेसहारा लोगों की मदद करें, इससे शनिदेव खुश होते हैं और अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं.

शनिवार के व्रत की कहानी Saturday vrat Fast

 

एक ब्राह्मण को सपने में नीली घोड़ी पर नीले कपड़े पहने एक आदमी दिखाई देता है और कहता हैहे ब्राह्मण देवता मैं तेरे लगूंगा। ब्राह्मण घबरा कर उठ गया। अगले दिन यही सपना उसे फिर आता है। यह सपना उसे रोज आने लगा वह परेशान हो गया और चिंता के मारे दुबला होने लगा। उसकी पत्नी ने कारण पूछा तो उसने सपने के बारे में बताया। ब्राह्मणी बोली वे अवश्य ही शनि महाराज होंगे। अबकी बार दिखे तो कहनालग जाओ पर सवा पहर से ज्यादा मत लगनाउस दिन सपना आने पर ब्राह्मण ने कहा लग जाओ पर कितने समय के लिए लगोगे ? शनि जी बोलेसाढ़े सात वर्ष का लगूंगा। ब्राह्मण ने कहाक्षमा करें शनि जी इतना भारी तो मुझसे झेला नहीं जायेगा। तब शनि जी बोलेतो पांच वर्ष का लग जाऊंगा। ब्राह्मण बोलायह भी मेरे लिए ज्यादा है। शनि जी बोलेढ़ाई साल का लग जाऊं ? ब्राह्मण ने मना किया तो शनि जी कहने लगे सवा पहर का तो लगूंगा ही। इतना तो कोढ़ी , कलंगी , भिखारी के भी लग जाता हूँ। तब ब्राह्मण ने कहाठीक है। ब्राह्मण को सवा पहर की शनि की दशा लग गई।
ब्राह्मण ने नींद से जागकर ब्राह्मणी से कहामेरे सवा पहर शनि की दशा लग गई है। इसलिए मैं जंगल में जाकर यह समय बिताऊंगा। मेरे लिए खाने पीने का सामान बांध दे। मेरे पीछे से किसी से लड़ाई झगड़ा ना हो इसका ध्यान रखना ज्यादातर घर में ही रहना। बच्चों का भी ध्यान रखना। इस सवा पहर के समय में कोई गाली भी दे तो चुपचाप सुन लेना। बहस मत करना। यह सब समझा कर ब्राह्मण जंगल में चला गया।
जंगल में ब्राह्मण एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया और हनुमान जी का पाठ करने लगा। एक पहर बीत गया। ब्राह्मण ने सोचा बाकि बचा समय रास्ते में बीत जायेगा। इसलिए वहां से चल दिया। रास्ते में एक बाड़ी में मतीरे लगे देखे। माली से एक मतीरा खरीदा , पोटली में बांधा और आगे बढ़ा।
आगे एक आदमी मिला जो असल में शनिदेव थे। ब्राह्मण से पूछा पोटली में क्या है ? उसने कहा मतीरा है। शनि देव बोले दिखाओ। ब्राह्मण ने पोटली खोली। उसमे राजकुमार का कटा हुआ खून से लथपथ सिर दिखा। शनिदेव ब्राह्मण को राजा के पास ले गए और कहा की इस ब्राह्मण ने राजकुमार की हत्या कर दी है। इसके पास पोटली में राजकुमार का सिर है।
राजा ने कहामैं यह नहीं देख सकता। इस ब्राह्मण को सूली पर चढ़ा दो। राजा के यहाँ हाहाकार मच गया। ब्राह्मण को सूली पर चढ़ाने से पहले पूछा गया की उसकी कोई आखिरी इच्छा हो तो बताये। ब्राह्मण ने सोचा किसी तरह सवा पहर पूरा करना होगा। उसने कहा वह रोज बालाजी की कथा सुनता है। मरने से पहले अंतिम बार बाला जी की कथा सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण को कथा सुनाने का प्रबंध किया गया।
कथा कहते कहते सवा पहर पूरा हो गया। शनि की दशा टलते ही राजकुमार शिकार खेल कर लौटता हुआ दिखाई दिया। राजकुमार को आता देख राजा बहुत खुश हुआ। लेकिन उसे निर्दोष ब्राह्मण की हत्या का दोष लगने का डर सताने लगा। उसने तुरंत घुड़सवार सैनिकों को ब्राह्मण को आदर सहित ले आने के लिए भेजा। ब्राह्मण राजदरबार में आया तो राजा ने क्षमा मांगी और पोटली दिखाने के लिए कहा। पोटली खोली तो उसमे मतीरा था।
राजा ने इन सबके बारे में पूछा तो ब्राह्मण ने बतायामुझे सवा पहर की शनिश्चर की दशा लगी थी इस कारण यह सब तमाशा हुआ। राजा ने पूछायह दशा कैसे टलती है ? ब्राह्मण बोलाराजा या सेठ के लगे तो काला हाथी या काला घोड़ा दान करे। गरीब के लगे तो पीपल की पूजा करे। पूजा करे तब बोलेसाँचा शनिश्चर कहिये जाके पाँव सदा ही पड़िए। शनि की कहानी सुने। तिल का तेल और काला उड़द दान करे।
काले कुत्ते को तेल से चुपड़ कर रोटी खिलाये तो शनिश्चर की दशा उतर जाती है। राजा ने उसे मतीरा वापस दे दिया। घर आकर ब्राह्मण ने मतीरा काटा तो उसमे बीज की जगह हीरे मोती निकले। ब्राह्मणी ने पूछायह कहाँ से लाये ? आप तो कह रहे थे शनि की दशा लगी है। ब्राह्मण ने कहाजब दशा लगी थी तो यही मतीरा राजकुमार का सिर बन गया था। उतरती दशा के शनि जी निहाल कर गए।
हे शनि देवता जैसी ब्राह्मण के शनि की दशा लगी वैसी किसी को ना लगे। निहाल सबको करे।
शनिदेव की जय !!!

 

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