वैशाख मास माहात्म्य अध्याय6 vaishakh maas ki katha day6 #vaishakhmaaskamahatva

 


वैशाख
मास-माहात्म्य अध्याय 06 इस अध्याय में:- भगवत कथा के श्रवण और कीर्तन का महत्त्व तथा वैशाख मास के धर्मों के अनुष्ठान से राजा पुरुयशा का संकट से उद्धार

श्रुतदेव बोले मेष राशि में सूर्य के स्थित रहने पर जो वैशाख मास में प्रात:काल स्नान करता है। और भगवान् विष्णु की पूजा करके इस कथा को सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम धाम को प्राप्त होता है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास कहते हैं, जो सब पापों का नाशक, पवित्रकारक, धर्मानुकूल, वन्दनीय और पुरातन है।

गोदावरी के तट पर शुभ ब्रह्मेश्वर क्षेत्र में महर्षि दुर्वासा के दो शिष्य रहते थे, जो परमहंस, ब्रह्मनिष्ठ, उपनिषद्विद्या में परिनिष्ठित और इच्छारहित थे। वे भिक्षामात्र भोजन करते और पुण्यमय जीवन बिताते हुए गुफा में निवास करते थे। उनमें से एक का नाम था सत्यनिष्ठ और दूसरेका तपोनिष्ठ।

वे इन्हीं नामों से तीनों लोकों में विख्यात थे। सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा में तत्पर रहते थे। जब कोई श्रोता अथवा वक्ता होता, तब वे अपने नित्यकर्म किया करते थे यदि कोई श्रोता उपस्थित होता तो उसे निरन्तर वे भगवत् कथा सुनते और यदि कोई कथावाचक भगवान् विष्णु की कल्याणमयी पवित्र कथा कहता तो वे अपने सब कर्मोको समेटकर श्रवण में तत्पर हो उस कथा को सुनने लगते थे। वे अत्यन्त दूर के तीर्थों और देवमन्दिरों को छोड़ कर तथा कथा विरोधी कर्मो का परित्याग करके भगवान् की दिव्य कथा सुनते और श्रोताओं को स्वयं भी सुनाते थे कथा समाप्त होने पर सत्यनिष्ठ अपना शेष कार्य पूरा करते थे। कथा सुनने वाले पुरुष को जन्म-मृत्युमय संसार बन्धन की प्राप्ति नहीं होती। उसके अन्तःकरण की शुद्धि होती है,

भगवान् विष्णु में जो अनुराग की कमी है, वह दूर हो जाती है और उनके प्रति गाढ़ अनुराग होता है। साथ ही साधु पुरुषों के प्रति सौहार्द बढ़ता है। रजोगुण रहित गुणातीत परमात्मा शीघ्र ही हृदय में स्थित हो जाते हैं। श्रवण से ज्ञान पाकर मनुष्य भगवच्चिन्तन में समर्थ होता है। श्रवण, ध्यान और मनन- यह वेदों में अनेक प्रकार से बताया गया है। जहाँ भगवान् विष्णु की कथा होती हो और जहाँ साधु पुरुष रहते हों, वह स्थान साक्षात् गंगातट ही क्यों हो, नि:सन्देह त्याग देने योग्य है। जिस देश में तुलसी नहीं हैं। अथवा भगवान् विष्णु का मन्दिर नहीं है, ऐसा स्थान निवास करने योग्य नहीं है। यह निश्चय करके मुनिवर सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा और चिन्तन में संलग्न रहते थे।

दुर्वासा का दूसरा शिष्य तपोनिष्ठ दुराग्रह पूर्वक कर्म में तत्पर रहता था। वह भगवान् की कथा छोड़कर अपना कर्म पूरा करनेके लिये इधर-उधर हट जाता था। कथा की अवहेलना से उसे बड़ा कष्ट उठाना पड़ा। अन्ततोगत्वा कथापरायण सत्यनिष्ठ ने ही उसका संकट से उद्धार किया।

जहाँ लोगों के पाप का नाश करने वाली भगवान् विष्णु की पवित्र कथा होती है, वहाँ सब तीर्थ और अनेक प्रकार के क्षेत्र स्थित रहते हैं। जहाँ विष्णु-कथारूपी पुण्यमयी नदी बहती रहती है, उस देश में निवास करने वालों की मुक्ति उनके हाथ में ही है।

पूर्व काल में पांचाल देश में पुरुयशा नामक एक राजा थे, जो पुण्यशील एवं बुद्धिमान् राजा भूरियशा के पुत्र थे। पिता के मरने पर पुरुयशा राज्यसिंहासन पर बैठे। वे धर्म की अभिलाषा रखने वाले, शूरता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न और धनुर्वेद में प्रवीण थे। उन महामति नरेश ने अपने धर्म के अनुसार पृथ्वी का पालन किया। कुछ काल के पश्चात् राजा का धन नष्ट हो गया। हाथी और घोड़े बड़े-बड़े रोगों से पीड़ित होकर मर गये। उनके राज्य में ऐसा भारी अकाल पडा, जो मनुष्यों का अत्यन्त विनाश करने वाला था। पांचाल नरेश राजा पुरुयशा को निर्बल जानकर उनके शत्रुओं ने आक्रमण किया और युद्ध में उनको जीत लिया।

तदनन्तर पराजित हुए राजा ने अपनी पत्नी शिखिणी के साथ पर्वत की कन्दरा में प्रवेश किया। साथ में दासी आदि सेवकगण भी थे। इस प्रकार छिपे रहकर राजा मन-ही-मन विचार करने लगे कि मेरी यह क्या अवस्था हो गयी। मैं जन्म और कर्म से शुद्ध हूँ, माता और पिता के हित में तत्पर रहा हूँ, गुरुभक्त, उदार, ब्राह्मणों का सेवक, धर्मपरायण, सब प्राणियों के प्रति दयालु, देवपूजक और जितेन्द्रिय भी हूँ; फिर किस कर्म से मुझे यह विशेष दु: देने वाली दरिद्रता प्राप्त हुई है? किस कर्म से मेरी पराजय हुई और किस कर्म के फलस्वरूप मुझे यह वनवास मिला है ?

इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल होकर राजा ने खिन्न चित्त से अपने सर्वज्ञ गुरु मुनिश्रेष्ठ याज और उपयाज का स्मरण किया। राजा के आवाहन करने पर दोनों बुद्धिमान् मुनीश्वर वहाँ आये। उन्हें देखकर पांचालप्रिय नरेश सहसा उठकर खड़े हो गये और बड़ी भक्ति के साथ गुरु के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर वन में पैदा होने वाली शुभ सामग्रियों के द्वारा उन्होंने उन दोनों का पूजन किया और विनीत भाव से पूछा- ‘विप्रवरो! मैं गुरुचरणों में भक्ति रखने वाला हूँ। मुझे किस कर्म से यह दरिद्रता, कोष हानि और शत्रुओं से पराजय प्राप्त हुई है? किस कारण से मेरा वनवास हुआ और मुझे अकेले रहना पड़ा? मेरे कोई पुत्र है, भाई है और हितकारी मित्र ही हैं मेरे द्वारा सुरक्षित राज्य में यह बड़ा भारी अकाल कैसे पड़ गया? ये सब बातें विस्तार पूर्वक मुझे बताइये।

राजा के इस प्रकार पूछने पर वे दोनों मुनिश्रेष्ठ कुछ देर ध्यानमग्न हो इस प्रकार बोले-राजन्! तुम पहले के दस जन्मों तक महापापी व्याध रहे हो। तुम सब लोगों के प्रति क्रूर और हिंसापरायण थे। तुमने कभी लेशमात्र भी धर्म का अनुष्ठान नहीं किया। इन्द्रियसंयम तथा मनोनिग्रह का तुम में सर्वथा अभाव था। तुम्हारी जिह्वा किसी प्रकार भगवान् विष्णु के नाम नहीं लेती थी। तुम्हारा चित्त गोविन्द के चारु चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता था और तुमने कभी मस्तक नवाकर परमात्मा को प्रणाम नहीं किया।

इस प्रकार दुरात्मा व्याध का जीवन व्यतीत करते हुए तुम्हारे नौ जन्म पूरे हो गये दसवाँ जन्म प्राप्त होने पर तुम सह्य पर्वतपर पुन: व्याध हुए। वहाँ सब लोगों के प्रति क्रूरता करना ही तुम्हारा स्वभाव था। तुम मनुष्योंके लिये यमके समान थे। दयाहीन, शस्त्रजीवी और हिंसापरायण थे। अपनी स्त्री के साथ रहते हुए राह चलने वाले पथिकों को तुम बड़ा कष्ट दिया करते थे बड़े भारी शठ थे। इस प्रकार अपने हित को जानते हुए तुमने बहुत वर्ष व्यतीत किये।

जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं, ऐसे मृगों और पक्षियों के वध करने के कारण तुम दयाहीन दुर्बुद्धि को इस जन्म में कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। तुमने सबके साथ विश्वासघात किया, इसलिये तुम्हारे कोई सहोदर भाई नहीं हुआ। मार्ग में सबको पीड़ा देते रहे, इसलिये इस जन्म में तुम मित्र रहित हो। साधु पुरुषों के तिरस्कार से शत्रुओं द्वारा तुम्हारी पराजय हुई है। कभी दान देने के दोष से तुम्हारे घर में दरिद्रता प्राप्त हुई है। तुमने दूसरों को सदा उद्वेग में डाला, इसलिये तुम्हें दुःसह वनवास मिला। सबके अप्रिय होने के कारण तुम्हें असह्य दु: मिला है। तुम्हारे क्रूर कर्मो के फल से ही इस जन्म में मिला हुआ राज्य भी छिन गया है। वैशाख मास की गरमी में तुमने स्वार्थवश एक दिन एक ऋषि को दूर से तालाब बता दिया था और हवा के लिये पलाश का एक सूखा पत्ता दे दिया था।

बस, जीवन में इस एक ही पुण्य के कारण तुम्हारा यह जन्म परम पवित्र राजवंश में हुआ है। अब यदि तुम सुख, राज्य, धन-धान्यादि सम्पत्ति, स्वर्ग और मोक्ष चाहते हो अथवा सायुज्य एवं श्रीहरि के पद की अभिलाषा रखते हो तो वैशाख मास के धर्मो का पालन करो। इससे सब प्रकार के सुख पाओगे। इस समय वैशाख मास चल रहा है। आज अक्षय तृतीया है। आज तुम विधि-पूर्वक स्नान और भगवान् लक्ष्मीपति की पूजा करो। यदि अपने समान ही गुणवान् पुत्रों की अभिलाषा करते हो तो सब प्राणियों के हित के लिये प्याऊ लगाओ। इस पवित्र वैशाख मास में भगवान् मधुसूदन की प्रसन्नता के लिये यदि तुम निष्काम भाव से धर्मो का अनुष्ठान करोगे, तो अन्त:करण शुद्ध होने पर तुम्हें भगवान् विष्णु का प्रत्यक्ष दर्शन होगा।

यों कहकर राजा की अनुमति ले उनके दोनों ब्राह्मण पुरोहित याज और उपयाज जैसे आये थे, वैसे ही चले गये उनसे उपदेश पाकर महाराज पुरुयशा ने वैशाख मास के सम्पूर्ण धर्मो का श्रद्धापूर्वक पालन किया और भगवान् मधुसूदन की आराधना की। इससे उनका प्रभाव बढ़ गया तथा बन्धु-बान्धव उनसे आकर मिल गये। तत्पश्चात् वे मरने से बची हुई सेना को साथ ले बन्धुओं सहित पांचाल नगरी के समीप आये। उस समय पांचाल राजा के साथ राजाओं का पुन: संग्राम हुआ। महारथी पुरुषशा ने अकेले ही समस्त महाबाहु राजाओं पर विजय पायी। विरोधी राजाओं ने भागकर विभिन्न देशों के मार्गो का आश्रय लिया। विजयी पांचालराज ने भागे हुए राजाओं के कोष, दस करोड़ घोड़े, तीन करोड़ हाथी,

एक अरब रथ, दस हजार ऊँट और तीन लाख खच्चरों को अपने अधिकार में करके अपनी पुरी में पहुँचा दिया। वैशाख धर्म के माहात्म्य से सब राजा भग्नमनोरथ हो पुरुयशा को कर देने वाले हो गये और पांचाल देश में अनुपम सुकाल गया। भगवान् विष्णु की प्रसन्नता से इस वसुधा पर उनका एकछत्र राज्य हुआ और गुरुता, उदारता आदि गुणों से युक्त उनके पाँच पुत्र हुए, जो धृष्टकीर्ति, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्न, विजय और चित्रकेतु के नाम से प्रसिद्ध थे। धर्म पूर्वक प्रतिपालित होकर समस्त प्रजा राजा के प्रति अनुरक्त हो गयी। इससे उसी क्षण उन्हें वैशाख मास के प्रभाव का निश्चय हो गया। तब से पांचालराज भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये वैशाख मास के धर्मो का निष्काम भाव से बराबर पालन करने लगे। उनके इस धर्म से सन्तुष्ट होकर भगवान् विष्णु ने अक्षय तृतीया के दिन उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया

जय जय श्री हरि 

 अध्याय 6 - एक घरेलू छिपकली की कहानी

 

नारद ने कहा:

1. हे राजा, जो व्यक्ति वैशाख महीने में अत्यधिक प्यासे और लंबी यात्रा से थके हुए लोगों को पानी नहीं पिलाता, वह पशु के रूप में (निचली योनि में) जन्म लेगा।

 

2. इस संबंध में वे निम्नलिखित पुरानी कहानी और एक ब्राह्मण और एक घरेलू छिपकली के बीच एक बहुत ही अद्भुत संवाद का हवाला देते हैं।

 

3. पूर्व में इक्ष्वाकु के परिवार में हेमांग नाम का एक राजा था।[1] वह ब्राह्मणों का हितैषी था। वह अत्यंत दानी था. उसने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और सभी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया था।

 

4. जितनी पृय्वी में कण हैं, जितनी जल की बूंदें हैं (समुद्र आदि में) और जितने आकाश में तारे हैं, उतनी गायें उसने दान में दीं।

 

5. सारी पृथ्वी प्रचुर मात्रा में कुश घास से शोभायमान हो गई क्योंकि उनके यज्ञ समाप्त होने के बाद उन्होंने उन्हें इधर-उधर बिखेर दिया था। उन्होंने कई ब्राह्मणों को गाय, भूमि, तिल के बीज, सोना और अन्य वस्तुओं के दान से संतुष्ट किया था।

 

6. यह सर्वविदित है कि कोई भी धर्मार्थ उपहार उनके द्वारा नहीं दिया गया था। बेशक, पानी ही एकमात्र ऐसी चीज़ थी जो उसने नहीं दी, हे राजा, क्योंकि उसने सोचा कि यह आसानी से उपलब्ध है।

 

7-8. उन्हें ब्रह्मा के पुण्यात्मा पुत्र वशिष्ठ ने सलाह दी थी। फिर भी उन्होंने तर्क दिया, "एक दाता क्या फल प्राप्त कर सकता है - एक मूल्यहीन चीज़ का दाता जो हर जगह उपलब्ध है?" इस गलत धारणा और उसके समर्थन में तर्कों के साथ, उन्होंने किसी भी ब्राह्मण को पानी नहीं दिया। उनका कथन (स्पष्ट रूप से) उचित था, "जो उपलब्ध नहीं है उसे देने में योग्यता होगी।"

 

9. वह अंगों से वंचित ब्राह्मणों, गरीब ब्राह्मणों और आजीविका के साधनों से वंचित लोगों की पूजा करता था। वह उन ब्राह्मणों की पूजा नहीं करता था जो वेदों के अच्छे जानकार थे, सत्य के ज्ञाता थे और जो ब्रह्म की व्याख्या करते थे।

 

10-11. 'सभी लोग प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पूजा करेंगे और उन्हें भरपूर उपहार देंगे। असहाय लोगों की सहायता कौन करेगा - बिना विद्या वाले ब्राह्मण, उन विकलांगों जिनके हाथ-पैर नहीं और जो गरीब हैं? इसलिए वे सहानुभूति के पात्र हैं।' ऐसा सोचकर उसने अपनी इच्छा से अयोग्य व्यक्तियों को (अपने गुरु की सहमति के बिना) कुछ (धन) देने की पेशकश की।

 

12-15. इस महापाप के कारण राजा तीन जन्मों में चातक पक्षी, एक जन्म में गिद्ध और सात जन्मों में कुत्ता बन गया। बाद में उनका जन्म मिथिला के श्रुतकीर्ति नाम के राजा के घर में छिपकली के रूप में हुआ। हे राजा, वह कीड़ों को खाकर अपना गुजारा करता था। वह दुष्टबुद्धि सत्तासी वर्ष तक भीतरी मकान की छत पर इसी प्रकार पड़ा रहा।

 

एक बार वेदों में पारंगत श्रुतदेव नामक एक उत्कृष्ट ऋषि दोपहर के समय विदेह के राजा के निवास पर आए।

 

16-17. उसे देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। वह तुरंत उठे और मधुपर्क तथा स्वागत-सत्कार में दी गई अन्य वस्तुओं से उनका आदर-सत्कार किया। जिस जल से उसने अपना भोजन धोया, उस जल को उसने अपने सिर पर छिड़का। सौभाग्यवश, घरेलू छिपकली पर भी कुछ बूंदें छिड़क दी गईं।

 

18. छिपकली को तुरंत (पिछले जन्म) की याद जाती है। पूर्व कर्मों को याद करके वह अत्यंत दुःखी हो गया। इसने उस ब्राह्मण से, जो उस निवास पर आया था, चिल्लाकर प्रार्थना की, "मुझे बचाओ, मुझे बचाओ"

 

19-20. निचले स्तर के प्राणी की आवाज सुनकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो गया। उसने पूछा: “हे छिपकली, तुम कहाँ से रो रही हो? किस कर्म ने तुम्हें इस स्थिति में पहुँचाया है? क्या आप देवता हैं, सामान्य मनुष्य हैं, राजा हैं या ब्राह्मण हैं? मुझे बताओ कि तुम कौन हो, हे परम धन्य! आज मैं तुम्हें छुड़ा लूँगा।

 

21-28. इस प्रकार पूछे जाने पर राजा ने महान बुद्धि वाले श्रुतदेव से कहा: “मैं इक्ष्वाकु वंश में पैदा हुआ हूं। मैं वेदों और धर्मग्रन्थों का विशेषज्ञ था। जितनी पृथ्वी में कण हैं, जितनी जल की बूंदें हैं (समुद्र आदि में) अथवा आकाश में जितने तारे हैं, मैंने उतनी ही गायें दान में दी हैं। सारे यज्ञ मेरे द्वारा सम्पन्न किये गये। मैंने सार्वजनिक उपयोगिता के कार्य किए जैसे कि झीलें, कुएँ खोदना आदि। धर्मार्थ उपहार दिए गए और वैशाख महीने के लिए निर्धारित अनुष्ठान किए गए। फिर भी मैं ऊँचे पद के बदले (पुरस्कार पाने के लिए) दुःख भोगने के लिए इस दयनीय स्थिति में गया हूँ। तीन बार मेरा जन्म चतक पक्षी के रूप में और एक बार गिद्ध के रूप में हुआ। हे ब्राह्मण, इससे पहले मैं सात बार कुत्ते के रूप में जन्म ले चुका था। आपके चरण धोने के बाद जैसे ही इस राजा ने जल अपने ऊपर छिड़का तो संयोगवश कुछ बूंदें मुझ पर गिर गईं। जिससे मुझे पिछले जन्मों की याद गयी है. मेरे सारे पाप नष्ट हो गये। मुझे अभी घरेलू छिपकली के रूप में अट्ठाईस जन्म लेने हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें भाग्य द्वारा नियुक्त किया गया है। मैं इसी बात से बेहद डरता हूं.' मुझे इसका कोई कारण नजर नहीं आता. मुझे पूरी तरह समझाओ।

 

28बी-31. ऐसा कहने पर उस ऋषि ने अपनी पूर्ण ज्ञान दृष्टि से सब कुछ देखा और कहा, “हे राजन, सुनो। मैं तुम्हें निम्न योनियों में जन्म लेने का कारण बताऊंगा। आपके द्वारा वैशाख माह में, जो भगवान विष्णु को प्रिय है, जल नहीं अर्पित किया गया। चूंकि पानी आसानी से एक है

28बी-31. ऐसा कहने पर उस ऋषि ने अपनी पूर्ण ज्ञान दृष्टि से सब कुछ देखा और कहा, “हे राजन, सुनो। मैं तुम्हें निम्न योनियों में जन्म लेने का कारण बताऊंगा। आपके द्वारा वैशाख माह में, जो भगवान विष्णु को प्रिय है, जल नहीं अर्पित किया गया। चूँकि पानी आसानी से उपलब्ध है, आपने निर्णय लिया कि यह बेकार है। अपनी अज्ञानता के कारण ग्रीष्म ऋतु में भी तुम्हारे द्वारा यात्रियों तथा ब्राह्मणों को जल नहीं दिया जाता था। इसके अलावा, आपने योग्य लोगों की उपेक्षा करके अयोग्य व्यक्तियों को धर्मार्थ उपहार दिए। धधकती आग को छोड़कर राख पर कभी भी आहुति नहीं दी जाती।

 

32-33. एक पेड़ के अलग-अलग रंग हो सकते हैं। इसमें मीठी सुगंध आदि हो सकती है, लेकिन यदि यह कांटों से भरा हुआ है, तो कोई भी इसे पसंद नहीं करता है। उत्कृष्ट वृक्षों में अश्वत्थ को सहारा लेने योग्य वृक्ष का दर्जा प्राप्त है। क्या तुलसी के पौधे को अलग रखकर अंडे के पौधे की पूजा की जाती है?

 

34. लाचारी पूजा का कोई मापदंड नहीं है. लंगड़े और विकलांग जैसे असहाय व्यक्ति केवल दया के पात्र हैं।

 

35. जो लोग तपस्या का कठोरता से पालन करते हैं, जिनके पास पूर्ण ज्ञान है, जो वेदों और शास्त्रों के विशेषज्ञ हैं, वे विष्णु अवतार के समान हैं। सदैव उन्हीं की पूजा की जानी चाहिए, दूसरों की कभी नहीं।

 

36. वहां भी, जो ब्राह्मण पूर्ण ज्ञान से संपन्न हैं, वे हमेशा विष्णु के सबसे पसंदीदा होते हैं। हे राजन, विष्णु भी पूर्ण ज्ञान वाले व्यक्तियों द्वारा सदैव प्रिय होते हैं। अत: ज्ञानवान व्यक्ति ही पूजनीय है। उनको सबसे बड़ा पूज्य के रूप में गाया जाता है।

 

37. उत्कृष्ट आचरण वाले व्यक्तियों का तिरस्कार करने से यहां और उसके बाद भी दुख होता है। महापुरुषों की सेवा ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति का कारण बनती है।

 

38. भले ही करोड़ों अंधे लोग (एक साथ मिल जाएं) भी, वे चीजों को वैसे नहीं देख पाएंगे जैसे वे वास्तव में मौजूद हैं। इसी प्रकार दस हजार मंदबुद्धि व्यक्तियों का संघ भी किसी प्रकार फलदायी नहीं हो सकता।

 

39. तीर्थ केवल जल नहीं हैं; देवता मात्र मिट्टी या पत्थर नहीं हैं। जहां तक अच्छे लोगों की बात है, वे केवल दर्शन मात्र से ही पवित्र होते हैं, लेकिन बहुत समय बीत जाने के बाद ही।

 

40. जो लोग उनके द्वारा अच्छी तरह से प्रशिक्षित होते हैं, वे सत्पुरुषों की सेवा के कारण दुःखी नहीं होते, जिस प्रकार अमृत से पोषित व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा आदि से पीड़ित नहीं होते।

 

41. हे इक्ष्वाकु वंश के वंशज, तुम्हारे द्वारा जल नहीं दिया गया, ही अच्छे लोगों की सेवा की गई। इसलिये तुम्हें यह दुर्भाग्य (नीच योनि में जन्म) प्राप्त हुआ है।

 

42. बुराई को दबाने और शांति प्राप्त करने के उद्देश्य से, मैं तुम्हें वैशाख में मेरे द्वारा किए गए पवित्र अनुष्ठानों के माध्यम से अर्जित सभी पुण्य दूंगा। जिससे तुम्हें अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी बुरे फलों से छुटकारा मिल जायेगा।

 

43-46. यह कहकर और समारोहपूर्वक जल पीकर उसने उत्तम पुण्य का दान कर दिया। जब एक दिन में किए गए पवित्र स्नान का पुण्य ब्राह्मण द्वारा दान कर दिया गया, तो उस राजा के सभी पाप नष्ट हो गए। उसने घरेलू छिपकली के शरीर को त्याग दिया। उनके पास दिव्य मालाएँ, वस्त्र और आभूषण थे। जब सभी जीवित प्राणी देख रहे थे, तब भी वह मीनिला के राजा की हवेली के भीतर श्रद्धा से हथेलियाँ जोड़कर खड़ा था। उसने उनकी परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम किया। उनकी अनुमति पाकर राजा एक दिव्य हवाई रथ पर चढ़ गये। अमर लोगों द्वारा स्तुति किये जाने पर वह स्वर्ग चला गया।

 

47. वहां उसने दस हजार वर्ष तक बिना किसी प्रमाद (कामातुर) के महान् सुख भोगे। महान स्वामी का स्वयं इक्ष्वाकु-जाति में काकुत्स्थ के रूप में पुनर्जन्म हुआ था।[2]

 

48. वह महान भगवान विष्णु के अंश थे वह देवेन्द्र का दोस्त था। उन्होंने सात महाद्वीपों वाली संपूर्ण पृथ्वी की रक्षा की। वह ब्राह्मणों का संरक्षक था और अच्छे लोगों द्वारा उसका सम्मान किया जाता था।

 

49. वसिष्ठ से प्रबुद्ध होकर, उन्होंने वैशाख के लिए निर्धारित सभी अच्छे संस्कार किए। जिससे उन्हें सभी अशुभताओं और बुराइयों से छुटकारा मिल गया।

 

50-52. दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने विष्णु के साथ सायुज्य के रूप में मोक्ष प्राप्त किया। इसलिए वैशाख शुभ है। यदि अनुष्ठान सभी मनुष्यों द्वारा किया जाता है, तो वैशाख दीर्घायु, प्रसिद्धि और समृद्धि प्रदान करता है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। यह जीवन के सभी लक्ष्यों की प्राप्ति का कारण है। इससे विष्णु प्रसन्न होते हैं।

 

वैशाख के महीने में, वसंत ऋतु के दौरान चारों वर्णों के साथ-साथ जीवन के चारों चरणों के सभी पुरुषों द्वारा महान पवित्र संस्कार किए जाने चाहिए।

 

फ़ुटनोट और संदर्भ:

[1]:

 

राजा हेमांग की कहानी दर्शाती है कि वैशाख में मुफ्त में पानी देना अन्य सभी उपहारों, यज्ञों आदि से बेहतर है और इसे करने से इनकार करने पर भयानक दंड मिलता है। तो पीई और ही एमबीएच ने ऐसे किसी राजा का रिकॉर्ड बनाया है। नाम काल्पनिक हो सकते हैं लेकिन वे पानी के उपहार के महत्व पर जोर देते हैं।

 

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