सत्य की कीमत | मज़ेदार कहानी | Hindi Story | Sikshaprad Kahani | Moral Story

 सत्य की कीमत | मज़ेदार कहानी | Hindi Story | Sikshaprad Kahani | Moral Story


एक महर्षि वन में वर्षों से घोर तपस्या कर रहे थे जंगली जानवर आसपास मंडराते रहते थे पर महर्षि को मानो कोई खबर नहीं थी कई आंधी तूफान आए पर महर्षि पूरी तरह बेखबर थे उस महान तपस्वी की तपस्या भंग करने स्वर्ग से अप्सराएं उतर आई पर मजाल है जो महर्षि का ध्यान भटके लेकिन जब एक राजा अपना लाव लकर लिए जंगल में शिकार के लिए आया और उसने एक हिरण मार गिराया तो हिरण की दर्द भरी कराह पर महर्षि की तपस्या भंग हुई और उन्होंने क्रोध में जोर से ललकार कर कहा कौन है वो दु साहसी जिसने मेरी वर्षों की तपस्या बंग की है उसने इस री पशु का ही नहीं मेरी तपस्या का भी आखेट

(00:45) किया है कहीं तपस्वी कोई श्राप ना दे दे इस डर से राजा सामने आया और महर्षि से क्षमा मांगते हुए कहा हे ऋषिवर मुझे पता नहीं था कि आप यहां तप कर रहे हैं अन्यथा मैं यहां कभी नहीं आता महर्ष गुस्से में चिल्लाए मेरी उस तपस्या का क्या जो मैं वर्षों से कर रहा था तूने उसे एक पल में भंग कर दिया मुझे मेरा तप लौटा अन्यथा मेरे क्रोध का भागी बन मैं तुझे श्राप दे देता हूं राजा ने घबराकर कहा नहीं महर्षी जो चाहे दंड दे पर श्राप ना दे मेरी प्रजा नष्ट हो जाएगी आप चाहे तो बदले में मेरा सब कुछ ले ले मेरा राज पाठ मेरी धन संपत्ति मेरा वैभव मेरा

(01:29) पुण्य महर्षि ने राजा की कमजोर नब्स पकड़ ली और पूछा क्या है तेरा वैभव तेरा पुण्य धर्म राजा ने कहा मैं आज तक धर्म पर अटल रहा हूं महर्षी ने पूछा धर्म पर अटल रह सकेगा तू राजा बोला ईश्वर की मुझ पर कृपा है महर्षी ने कहा तो दे अपना राजपाट अपना कोश अपना वैभव सब मुझे दे राजा ने कहा हां मैं ऐसी क्षण देता हूं महर्षि ने पूछा अपने वचन से फिरे तो नहीं इसके बाद राजा के मुख से जो वचन निकला वह हमेशा के लिए कहावत बन गई चंद्र टरे सूर्य टरे टरे जगत व्यवहार पै दड श्री हरिश्चंद्र को टरे न सत्य विचार यह थे अयोध्या के राजा ऋषि वशिष्ठ के शिष्य सच्चे प्रजा पालक सत्य और

(02:21) सत्य बादिता के प्रतीक राजा हरिश्चंद्र और यह तपस्वी साधु थे महर्षि विश्वामित्र इसके बाद शुरू होता है सत्य की अपनी टेक पर टिके रहने और उसके बदले में कोई भी कीमत चुकाने का दृढ़ निश्चय राजा हरिश्चंद्र ने अपना सारा राज्य महर्षि विश्वामित्र को सौंपकर अपनी पत्नी और बेटे के साथ वन को प्रस्थान किया किंतु महामुनि विश्वामित्र का दंड इतना सरल कैसे हो सकता था उन्होंने प्रस्थान करते राजा हरिश्चंद्र को टोका तुमने अपना राज्य तो मुझे उस राज्य के बदले दिया है जो मैंने तपस्या करने के लिए छोड़ा था पर मेरी तपस्या भंग करने का दंड तो अभी बाकी है है

(03:01) राजा बोले लेकिन अपना सारा राजपाट तो मैंने आपको दे दिया महर्षि बोले कैसे धर्मात्मा हो तुम हरिश्चंद्र तुम्हारी संपत्ति मेरे पास है दान तो दे दिया पर दक्षिणा कौन देगा भूल गए हो तुम कि तुम्हारा पुरुषार्थ तो तुम्हारे पास ही है राजा बोले आपको क्या चाहिए भगवन महर्षि बोले 1000 स्वर्ण मुद्राएं राजा बोले मैं आपको 1000 स्वर्ण मुद्राएं देने का वचन देता हूं किंतु मुझे उसके लिए कुछ समय दीजिए महर्षि बोले ठीक है राजन एक मास का समय है तुम्हारे पास अपने वचन का पालन करने को राजा हरिश्चंद्र अपनी पत्नी महारानी शैव्य और बेटे रोहिताश्व समेत

(03:43) धर्मनगरी काशी चले गए कई दिनों तक भटकने के बाद भी जब 1000 स्वर्ण मुद्राएं चुकाने के वचन को पूरा करने का कोई उपाय ना मिला तो उन्होंने अपने आप को बेचने का निर्णय लिया और भरे बाजार में अपनी बोली लगवाई वो बाजार में खड़े होकर आवाज लगाने लगे सुनो सुनो हे धर्मनगरी काशी के वासियों मुझे 1000 स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता आन पड़ी है इसलिए मैं अपने आप को बेच रहा हूं जो चाहे मुझे खरीद सकता है मुझे अपना दास बना सकता है और मुझसे कुछ भी करवा सकता है सिर्फ 1000 स्वर्ण मुद्राएं किंतु किसी ने भी खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि 1000 स्वर्ण मुद्राओं में तो 100

(04:25) दास आ जाएंगे पत्नी ने देखा कि पति को भाव नहीं मिल रहे हैं तो अपना पतिव्रत धर्म निभाते हुए वह भी अपनी बोली लगवाने को आ गई सुंदर और जवान दासी के लिए एक धनवान व्यापारी ने 500 स्वर्ण मुद्राएं दे दी और राजा हरिश्चंद्र की पत्नी को खरीद लिया बच्चे ने भी साथ में जाने की जिद की पहले तो व्यापारी ने साफ मना कर दिया पर राजा हरिश्चंद्र ने जब यह कहा कि यह भी आपकी सेवा पूरी तन्मयता से करेगा तो 100 स्वर्ण मुद्राएं और देकर वो व्यापारी उनके बेटे को भी साथ ले गया राजा ने दिहाड़ी पर खेती और मजदूरी के तमाम यत्न कर डाले पर वंचित

(05:01) राशि जुटा पाने में वे असमर्थ रहे आज एक मास बीतने का आखिरी दिन है और राजा हरिश्चंद्र चिल्ला चिल्ला कर रो रहे हैं विलाप कर रहे हैं महर्षि विश्वामित्र उनके पास आ पहुंचते हैं और कहते हैं तो बता हरिश्चंद्र धर्म के रास्ते पर चलकर तूने क्या कमाया सूर्यास्त होने में अब भी वक्त है हार मान ले तुझे तेरा राज्य तेरी सेना तेरा वैभव सब लौटा दूंगा एक बार फिर राजा हरिश्चंद्र ने हंकार चंद्र टरे सूर्य टरे टरे जगत व्यवहार पै दृढ हरिश्चंद्र को टरे ना सत्य विचार सूर्यास्त होने को है पर अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है मुझे विश्वास है जहां धर्म है

(05:44) विजय वही होगी एक बार फिर राजा हरिश्चंद्र महानगर काशी के बाजार में अपनी बोली लगवाने लगे सिर्फ 400 स्वर्ण मुद्राएं सिर्फ 400 स्वर्ण मुद्राएं और मैं आपका दास आपके हर कहे का पालन करूंगा सिर्फ 400 स्वर्ण मुद्राएं हैं मेरा मूल्य बोली सुनकर खरीदने वाले लोग अपने हिसाब से कीमत लगा रहे थे कोई बोला 100 स्वर्ण मुद्राएं दूंगा एक अन्य बोला 150 मुद्रा कोई बोला 200 दूंगा पर इससे देख नहीं राजा हरिश्चंद्र परेशान होने लगे किंतु तभी भीड़ में से एक आवाज आई 400 स्वर्ण मुद्राएं राजा हरिश्चंद्र का चेहरा चमक उठा भीड़ में से वो व्यक्ति निकल कर आया

(06:25) और राजा हरिश्चंद्र से बोला मैं आपको 400 स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए तैयार हूं किंतु पहले मैं आपको बता दूं कि मैं डोम सरदार हूं मुर्दों को जलाता हूं और शमशान घाट पर अपनी जीविका चलाता हूं क्या 400 स्वर्ण मुद्राओं के बदले मेरा दास बनना आपको स्वीकार है राजा हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर भावुक होकर विनम्रता से बोले हां मुझे आपकी दास्ता स्वीकार है इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र का ऋण तो चुका दिया पर अब वो शमशान भूमि में मुर्दों को जलाने वाले एक डोम बन चुके थे वो रोजाना चिताय जलाते थे उनसे निकलने वाले धुएं से उनकी आंखों के आंसू तक सूख गए थे ऐसे में एक

(07:05) दिन वह शमशान पर बैठे थे कि उन्हें एक महिला के रोने की आवाज सुनाई दी उन्होंने देखा दूर से एक महिला रोती हुई अपनी गोद में अपने मरे हुए पुत्र को लेकर आ रही है जब वह महिला नजदीक पहुंची तो राजा हरिश्चंद्र ने देखा कि ये महिला कोई और नहीं बल्कि उनकी ही पत्नी महारानी शैव्य है और उनकी गोद में वह मृत बालक उनका ही पुत्र था अपने पति को इस रूप में देखकर नी ने रोते रोते क्रोध में ताना मारा लीजिए महाराज यह है आपके धर्म का मूल्य मैंने अपना ऐश्वर्य खोया पति खोया पुत्र खोया और दो दुहाई धर्म की जहां धर्म है वहां विजय नहीं है टूट चुके राजा हरिश्चंद्र ने अपने

(07:45) पुत्र को उठाया और उसका मुख चूमते हुए उसे चिता पर लेटा दिया फिर जलती हुई मशाल लेकर अपनी पत्नी के पास वापस आकर बोले कर दो देवी ताकि मैं आपके पुत्र की चिता को आग दे सकूं रानी के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा व रोते रोते बोली यह आपका भी पुत्र है राजा बोले देवी मैं डोम सरदार का दास हूं शमशान कर लिए बिना किसी की चिता को आग नहीं दे सकता हूं यह मेरे स्वामी की आज्ञा है पत्नी रोते रोते विलाप करती रही अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के पुत्र के पास आज कफन भी नहीं है फिर भी आप मुझसे कर मांग रहे हैं किस धर्म का निर्वाह कर रहे हैं आप महाराज बोले जिस धर्म के लिए मैंने

(08:27) अपना राज्य छोड़ा जिस धर्म लिए मैंने अपनी पत्नी को बेचा जिस धर्म के लिए मैंने अपने पुत्र को बेचा जिस धर्म के लिए मैंने स्वयं अपने आप को बेचा उस धर्म को आज कैसे छोड़ दूं देवी मैं स्वामी और सेवक के धर्म में बंधा हूं देवी कर लिए बिना मैं आपके पुत्र की चिता को आग नहीं दे पाऊंगा रानी बोली तो सम्राट हरिश्चंद्र आप ही बताइए क्या बेचकर लाऊं मैं शमशान करर राजा बोले जो कर नहीं दे सकती हो तो अपने वस्त्र का आधा हिस्सा कर के रूप में दो रानी बोली अपनी पत्नी को धर्म के नाम पर नंगा करना चाहते हो तो यह भी लो ऐसा कहकर रानी ने अपनी साड़ी फाड़ने शुरू की इतने में ही

(09:09) महर्षि विश्वामित्र वहां प्रकट हुए और चिल्लाकर रानी को ऐसा करने से रोका और राजा हरिश्चंद्र से कहा धन्य है तू हरिश्चंद्र धन्य है तेरा कुल धन्य है तेरे गुरु धन्य है धर्म के पथ पर चलने की तेरी प्रतिज्ञा आज तू जीता और मैं हारा आज मैं विश्वामित्र अपने तप का साथ बल तुझे देता हूं ऐसा कहकर महर्षि विश्वामित्र चिता पर मृत पड़े उनके पुत्र के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं उठो रोहिताश्व उठो और कुछ ही पलों में बालक जीवित हो उठा राजा हरिश्चंद्र ने महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा में जो कुछ भी कमाया था उन्हें उनका राजपाट सेना कोश पत्नी और पुत्र सब

(09:50) वापस मिल गया दोस्तों धर्म की डगर बहुत कठिन होती है जिन्हें हम दुख और संघर्ष समझते हैं वो ईश्वर द्वारा ली जा रही हमारी परीक्षा भी हो सकती है धैर्य के साथ धर्म के मार्ग पर टिके रहने से हम जीवन सफल कर सकते हैं दोस्तों उम्मीद है यह कहानी आपको पसंद आई होगी अगर पसंद आई हो तो वीडियो को लाइक करके चैनल को सब्सक्राइब जरूर कर लें धन्यवाद


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