Durga Saptashati Paath Adhyay 1 श्री दुर्गा सप्तशती पहला अध्याय Durga Saptashati Path Adhyay 1 #durgasaptashati

 

             
Durga Saptashati Paath             अथ श्री दुर्गा सप्तशती

            Durga Saptashati Paath

            अथ श्री दुर्गा सप्तशती

माता रानी की कृपा हम सब भक्तों पर बनी रहे, इसी की हम कामना करते है| नवरात्री के नौ दिनों में विधि विधान से माँ दुर्गा की उपासना एवं प्रार्थना की जाती है| माँ  दुर्गा की पूजा उपासना में भक्त दुर्गा सप्तशती का पाठ बहुत श्रद्धा के साथ करते है| दुर्गा सप्तशती के 13  अध्याय है जिन में माँ आंबे जी की महिमा का वर्णन विस्तार से बताया गया है माना जाता है की दुर्गा सप्तशती पाठ से उत्तम फल की प्राप्ति होती है| अगर आप संस्कृत में पाठ नहीं कर सकते तो आप सरल हिंदी में इस पाठ को पढ़ सकते है

दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के लिए, सबसे पहले नवार्ण मंत्र, कवच, कीलक और अर्गला स्तोत्र का पाठ करना चाहिएइसके बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ शुरू करना चाहिए

दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पहले, श्रीदुर्गा सप्तशती की पुस्तक को साफ़ जगह पर लाल कपड़ा बिछाकर रखना चाहिए. इसके बाद, कुमकुम, चावल, और फूल से पूजा करनी चाहिए. इसके बाद, अपने माथे पर रोली लगाकर पूर्वाभिमुख होकर तत्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करना चाहिए

मान्यता है कि अगर नौ दिनों तक दुर्गा सप्तशती का नियमपूर्वक पाठ किया जाए, तो भगवती अति प्रसन्न होती हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं.

दुर्गा सप्तशती का पहला अध्याय, माँ आनंदेश्वरी के बारे में हैइसमें बताया गया है कि कैसे एक व्यक्ति अकेला और दुखी होकर जंगल में आता हैवह अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता और यह भी नहीं जानता कि उसके बच्चे सदाचारी हैं या दुराचारी

मान्यता है कि दुर्गा सप्तशती का पहला अध्याय पढ़ने से मानसिक और शारीरिक सुख मिलता है. वहीं, दूसरा अध्याय कोर्ट-कचहरी से जुड़े मामलों में विजय दिलाता है. तीसरे अध्याय से शत्रु बाधा दूर होती है.

Durga Saptashati Paath Adhyay 1 : अथ श्री दुर्गा सप्तशती भाषा पहला अध्याय

Durga Saptashati Paath Adhyay 1|श्री दुर्गा सप्तशती पहला अध्याय |Durga Saptashti Adhyaay1 


Durga Saptashati Paath Adhyay 1 : अथ श्री दुर्गा सप्तशती भाषा पहला अध्याय

Durga Saptashati Paath Adhyay 1 : अथ

श्री दुर्गा सप्तशती भाषा पहला अध्याय

 

Durga Saptashati Path 

 

नम चण्डिकायै नमः

Durga Saptashti Adhyaay -1 

अथ श्री दुर्गा सप्तशती भाषा  पहला अध्याय

महर्षि ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को देवी की महिमा बताना।

Durga Saptashati

महर्षि मार्कण्डेय जी बोले — सूर्य के पुत्र सावर्णि की उत्पति की कथा विस्तार पूरक कहता हूं, सावर्णि महामाया की कृपा से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, उसका हाल भी सुनो।

पहले स्वरोचिष नामक मन्वन्तर में चैत्र वंशी सुरथ नाम के एक राजा थे। सारी पृथवी पर उनका राज्य था। वह प्रजा को अपने पुत्र के समान मानते थे तो भी कोलाविधवंशी राजा उनके शत्रु बन गये। दुष्टों को दण्ड देने वाले राजा सुरथ की उनके साथ लड़ाई हुई, कोलाविधवंशीयों के संख्या में कम होने के पर भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे हार गये।

तब वह अपने नगर में गए, केवल अपने देश का राज्य ही उनके पास रह गया और वह उसी देश के राजा होकर राज्य करने लगे, किन्तु उनके शत्रुओं ने उन पर वहां भी आक्रमण किय। राजा को बलहीन देखकर उसके दुष्ट मंत्रियो ने राजा की सेना और खजाना अपने अधिकार में कर लिया।

राजा सुरथ अपने राज्य के अधिकार को हारकर शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार होकर वहां से एक भयंकर वन की ओर चले गये। उस वन में उन्होंने महर्षि मेघा का आश्राम देखा, वहां महर्षि मेघा अपने शिष्यों तथा मुनियों से सुशोभित बैठे हुए थे और  वहां कितने ही हिंसक जीव परम शांति भाव से रहते थे।

राजा सुरथ ने महर्षि मेघा को प्रणाम किया और महर्षि ने भी उनका उचित सत्कार किय। राजा सुरथ महर्षि के आश्रम में कुछ समय तक ठहरे। अपने नगर की ममता के आकर्षण से राजा अपने मन में सोचने लगे- पूर्वकाल में पूर्वजों ने जिस नगर का पालन किया था वह आज मेरे हाथ से निकल गया।

मेरे दुष्ट एवम दुरात्मा मंत्री मेरे नगर की अब धर्म से रक्षा कर रहे होंगे या नहीं ? मेरा प्रधान हाथी जो कि सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था मेरे  बैरियों के वश में होकर जाने क्या दुःख भोग रहा होगा ?

मेरे आज्ञाकारी नौकर जो मेरी कृपा से धन और भोजन पाने से सदैव सुखी रहते थे और मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वह अब निश्चय ही दुष्ट राजाओं का अनुसरण करते होंगे तथा मेरे दुष्ट एवम दुरात्मा मंत्रियो द्वारा व्यर्थ ही धन को व्यय करने से संचित किया हुआ मेरा खज़ाना एक दिन अवश्य खाली हो जायेगा

इस प्रकार की बहुत सी बातें सोचता हुआ राजा निरंतर दुखी रहने लगा एक दिन राजा सुरथ ने महर्षि मेघा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा, राजा ने उससे पूछा- भाई, तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है और तुम मुझे शोकग्रस्त अनमने से दिखाई देते हो, इस का क्या कारण है ?

राजा के यह नम्र वचन सुन वैश्य ने महाराज सुरथ को प्रणाम करके कहा, वैश्य बोलाराजन ! मेरा नाम समाधि है, मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ, मेरे दुष्ट स्त्री- पुत्रादिकों ने लोभ से मेरा सब धन छीन लिया है और मुझे घर से निकाल दिया है।

मैं इस तरह से दुखी होकर इस वन में चला आया हूँ और यहाँ रहता हुआ मैं इस बात को भी नहीं जानता कि अब घर में इस समय सब कुशल हैं या नहीं यहाँ मैं अपने परिवार का आचरण संबंधी कोई समाचार भी नहीं पा सकता कि वह घर में इस समय कुशलपूर्वक है या नहीं मैं अपने पुत्रों के सम्बन्ध में यह भी नहीं जानता कि वह सदाचारी है या दुराचार में फंसे हुए हैं

Durga Saptashati Paath

Durga Saptashati 
Paath राजा बोले — जिस धन के लोभी स्त्रीपुत्रों ने तुम्हें घर से निकाल दिया है, फिर भी तुम्हारा चित्त उनसे क्यों प्रेम करता है

वैश्य ने कहा — मेरे विषय में आपका ऐसा कहना ठीक है, किन्तु मेरा मन इतना कठोर नहीं है। यदपि उन्होंने धन के लोभ में पड़कर पितृ स्नेह को त्यागकर मुझे घर से निकाल दिया है, तो भी मेरे मन में उनके लिए कठोरता नहीं आती। हे महामते! मेरा मन फिर भी उनमें क्यों फँस रहा है, इस बात को जानता हुआ भी मैं नहीं जान रहा, मेरा चित उनके लिए दुखी है।

मैं उनके लिए लंबीलंबी सांसे ले रहा हूँ, उन लोगों में प्रेम नाम को नहीं है, फिर भी ऐसे नि :स्नेहियों के लिए मेरा ह्रदय कठोर नहीं होता।

Durga Saptashati Paath  महर्षि मार्कण्ड जी कहा — हे ब्राह्मण! इसके पश्चात महाराज सुरथ और वह वैश्य दोनों महर्षि मेघा के समीप गए और उनके साथ यथायोग्य न्याय सम्भाषण करके दोनों ने वार्ता आरंभ की

राजा बोले — हे भगवन ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, सो आप कृपा करके मुझे बताईये। मेरा मन मेरे अधीन नहीं है, इससे मैं बहुत दुखी हूँ, राज्य, धनादिक की चिंता अभी तक मुझे बनी हुई है और मेरी यह ममता अज्ञानियों की तरह बढ़ती जा रही है और यह समाधि नामक वैश्य भी अपने कुल से अपमानित होकर आया है, इसके स्वजनों ने भी इसे त्याग दिया है, स्वजनों से त्यागा हुआ भी यह उनसे हार्दिक प्रेम रखता है, इस तरह हम दोनों ही दुखी हैं

हे महाभाग ! उन लोगों के अवगुणों को देखकर भी हम दोनों के मन में उनके लिए ममताजनित आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। हमारे ज्ञान रहते हुए भी ऐसा क्यों है ? अज्ञानी मनुष्यों की तरह हम दोनों में यह मूर्खता क्यों है ?

महर्षि मेघा ने कहा — विषम मार्ग का ज्ञान सब जंतुओं को है, सबों के लिए विषय पृथक- पृथक होते हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और कुछ रात को, परंतु कोई जीव ऐसे हैं, जो दिन तथा रात दोनों में देख सकते है, यह सत्य है कि मनुष्यों में ज्ञान प्रधान है, किन्तु केवल मनुष्य ही ज्ञानी नहीं होता, पशुपक्षी आदि भी ज्ञान रखते हैं।

जैसे यह पशुपक्षी ज्ञानी हैं, वैसे ही मनुष्यों का ज्ञान है और जो ज्ञान मनुष्यों में हैं वैसे ही इन पशुपक्षीयों  में हैं तथा अन्य बातें भी दोनों में एक जैसी पाई जाती हैं। ज्ञान होने पर भी इन पक्षियों की ओर देखो कि अपने भूख से पीड़ित बच्चों की चोंच में कितने प्रेम से अन्न के दाने डालते है

हे राजन ! ऐसा ही प्रेम मनुष्यों में अपनी संतान के प्रति पाया जाता है लोभ के कारण अपने उपकार का बदला पाने के लिए मनुष्य पुत्र की इच्छा करते हैं, और इस  प्रकार मोह के गड्ढे में गिरा करते हैं। भगवान श्रीहरि की जो माया है, उसी से यह संसार मोहित हो रहा है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं हे क्योंकि वह भगवान विष्णु  की योगनिद्रा है।

यह माया ही  है जिस कारण संसार मोह में जकड़ा हुआ है, यही महामाया भगवती देवी ज्ञानिओं के चित हो बलपूर्वक खींचकर मोह में डल देती है और उसी के द्वारा सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है। यही भगवती देवी प्रसन्न होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करती है। यही संसार के बंधन का कारण है तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी स्वामिनी है।

Durga Saptashati Path

Durga Saptashati Paath
महाराज सुरथ ने पूछा — भगवन ! वह देवी कौन सी है, जिसको आप महामाया कहते हैं ? हे ब्रह्मन ! वह कैसे उत्पन्न हुई और उसका कार्य क्या है ? उसके चरित्र कौनकौन से हैं प्रभु ! उसका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो वह सब ही कृपा कर मुझे से कहिये, मैं आपसे सुनना चाहता हूँ।

महर्षि मेघा बोले —  हे राजन ! वह देवी तो नित्यस्वरूपा है, उसके द्वारा यह संसार रचा गया है, तब भी उसकी उत्पति अनेक प्रकार से होती है। वह सब आप मुझसे सुनो, वह देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए प्रकट होती है उस समय वह उत्पन्न हुई कहलाती है

संसार को जलमय करके जब भगवन विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लेकर, शेष शय्या पर सो रहे थे, तब मधु-केटभ नाम के दो असुर उनके कानों के मैल से प्रकट हुए और वह श्रीब्रह्मा जी को मारने के लिए तैयार हो गये। श्रीब्रह्माजी ने जब उन दोनों को अपनी ओर आते देखा और यह भी देखा कि भगवान विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लिकर सो रहे हैं, तो वह उस समय श्रीभगवान के जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे

श्रीब्रह्माजी ने कहा — हे देवी ! तुम ही स्वाहा, तुम ही स्वधा और तुम ही वषट्कार हो स्वर भी तुम्हारा ही स्वरुप है, तुम ही जीवन देने वाली सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार इन तीनों माताओं के रूप में तुम ही स्थित हो। इनके अतिरिक्त जो बिंदुपथ अर्धमात्रा है, जिसका कि विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जाता है, हे देवी ! वह भी तुम ही हो।

संध्या, सावित्री तथा परम जननी तुम ही हो। तुम इस विश्व को धारण करने वाली हो, तुमने ही इस जगत की रचना की है और तुम ही इस जगत की पालन करने वाली हो। और तुम ही कल्प के अंत में सबको भक्षण करने वाली हो हे देवी! जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टि रूपा होती हो, पालन काल में स्थित रूपा हो और कल्प के अंत में संहाररूप धारण कर लेती हो।

श्री ईश्वरी और बोधस्वरूपा बुद्धि भी तुम ही हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि , शांति, और क्षमा भी तुम ही हो। तुम खड्ग धारिणी, शूल धारिणी तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष के धारण करने वाली हो। बाण, भुशंडी और परिध यह भी तुम्हारे ही अस्त्र हैं तुम सौम्य और सौम्यतर होयही नहीं, बल्कि जितनी भी सौम्य तथा सुंदर वस्तुएं इस संसार में हैं, उन सबसे बढ़ कर सुन्दर तुम हो।

पर और अपर सबसे पर रहने वाली सुन्दर तुम ही हो। हे सर्वस्वरूपे देवी ! जो भी सत-असत पदार्थ हैं और उनमें जो शक्ति है, वह तुम ही हो। ऐसी अवस्था में भला तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है ? इस संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले जो भगवान हैं, उनको भी जब तुमने निद्रा के वशीभूत कर दिया है तो फिर तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है ?

मुझे, भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर को शरीर धारण कराने वाली तुम  ही हो। तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें हैं ? हे देवी! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों के कारण ही प्रशंसनीय हो। मधु और केंटभ जो भयंकर असुर हैं इन्हें तो मोह में डाल दो और श्रीहरि भगवान विष्णु को भी जल्दी जगा दो और उनमें इनको मार डालने की बुद्धि भी उत्पन्न कर दो।

Durga Saptashati Paath  महर्षि मेघा बोले हे — राजन ! जब श्रीब्रह्माजी ने देवी से इस प्रकार स्तुति करके भगवान को जगाने तथा मधु और कैटभ को मारने के लिए कहा तो वह भगवान श्रीविष्णु के नेत्र, मुख, नासिक, बाहु ,ह्रदय और वक्षस्थल से निकल श्रीब्रह्माजी के सामने खड़ी हो गई

उनका ऐसा कहना था कि भगवान श्रीहरि तुरन्त जाग उठे और दोनों असुंरो को देखा, जो कि अत्यंत बलवान तथा पराक्रमी थे और मारे क्रोध के जिनके नेत्र लाल हो रहे थे और जो ब्रह्मजी को वध करने के लिए तैयार थे। तब क्रोधित हो उन दोनों दुरात्मा असुरों के साथ भगवान श्रीहरि पुरे पांच हज़ार वर्ष तक लड़ते रहे।

एक तो वह अत्यंत बलवान तथा पराक्रमी थे, दूसरे महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था अतः वह श्रीभगवान से कहने लगेहम दोनों तुम्हारी वीरता से अत्यंत प्रसन्न है, तुम हमसे कोई वर मांगो! भगवान ने कहा- यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो अब तुम मेरे हाथों से मर जाओ। बस, इतना सा ही वर मैं तुमसे माँगता हूँ यहाँ दूसरे वर से क्या प्रयोजन है।

महर्षि मेघा बोले — इस तरह से जब वह धोखे में गए और अपने चारों ओर जल ही जल देखा तो भगवान श्रीहरि से कहने लगेजहाँ पर जल हो, सूखी जमीन हो, उसी जगह हमारा वध कीजिये महर्षि मेघा कहते है, ( तथास्तु ) कहकर भगवान श्रीहरि ने उन दोनों को अपनी जांघ पर लिटाकर उन दोनों के सिर काट डाले।

इस तरह ये देवी श्री ब्रह्माजी के स्तुति करने पर प्रकट हुई थीं, अब तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सो सुनो

 ॥इति श्री दुर्गा सप्तशती Durga Saptashati भाषा पहला अध्याय॥

 

          Durga Saptashti - Chapter 1 पहला अध्याय समाप्त 

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 Durga Saptashati Paath Adhyay 1|श्री दुर्गा सप्तशती पहला अध्याय

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  1. दुर्गा सप्तशती  पहला अध्याय
  2. दुर्गा सप्तशती दूसरा अध्याय
  3.  दुर्गा सप्तशती तीसरा अध्याय
  4. दुर्गा सप्तशती चौथा अध्याय
  5.  दुर्गा सप्तशती पांचवां अध्याय 
  6. दुर्गा सप्तशती छठा अध्याय  
  7. दुर्गा सप्तशती सातवां अध्याय
  8.  दुर्गा सप्तशती आठवा अध्याय
  9. दुर्गा सप्तशती नवां अध्याय
  10. दुर्गा सप्तशती दसवां अध्याय
  11.   दुर्गा सप्तशती ग्यारहवां अध्याय 
  12. दुर्गा सप्तशती बारहवां अध्याय
  13. दुर्गा सप्तशती तेरहवां अध्याय  

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